लोगों की राय

आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्रीराम और श्रीकृष्ण

श्रीराम और श्रीकृष्ण

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4382
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

254 पाठक हैं

श्रीराम और श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण

Shriram Aur Shri Krishan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपराण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

कृतज्ञता ज्ञापन


श्रीसद्गुरवै नमः

हमारे परिवार के आध्यात्मिक-प्रेरणास्रोत पूज्यपिताश्री नारायण प्रसाद गुप्तजी (आरंग वाले) दिनांक 13-11-96 को अपने दिव्य धाम के लिए प्रस्थान कर गये। उन्हीं धार्मिक विचारों से प्रेरित परिवार को इस कार्य द्वारा माता सरस्वती के मन्दिर में एक दिव्य सुमनांजलि समर्पित करने का पुण्य अवसर मिला। इस सबके पीछे सद्गुरु महाराजजी की कृपा एवं ईश्वरेच्छा ही मूल कारण है। उस परम शक्तिमान के प्रति हम सदैव श्रद्धानत हैं।

यहाँ पर भाई मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरुदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग रहा है। वे इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ के रूप में सुलभ कराते हैं।

श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।


।। श्रीराम: शरणं मम ।।



श्रीराम और श्रीकृष्ण



बहुधा यह कहा जाता है कि भगवान् श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम या लीला पुरुषोत्तम हैं। इससे यह लगता है कि दोनों की लीला में कुछ न कुछ अन्तर है। इस मान्यता से मैं पूरी तरह सहमत तो नहीं हूँ, परन्तु इस रुप में भी इस समस्या का समाधान किया जा सकता है और इस प्रकार के समाधान से भी कुछ लोगों को सन्तोष होता है, पर यदि हम श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भागवत् की दृष्टि पर विचार करें तो कुछ प्रसंग इन दोनों ग्रन्थों में ऐसे हैं कि जिनमें साम्यता है, एक जैसे हैं और कुछ प्रसंग ऐसे हैं कि जिसमें भिन्नता है। इनका सम्बन्ध वस्तुत जीव के अन्तःकरण की विभिन्न स्थितियों से है।

प्रभु तो एक ही हैं और वे एक ही प्रभु अपने को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करते हैं। प्रश्न यह है कि भगवान् के इतने रूपों के वर्णन किया जाता है और उनमें परस्पर इतनी भिन्नता प्रतीत होती है तो वस्तुतः भगवान् का वास्तविक रूप कौन सा है ? श्री काकभुशुण्डिजी ने इसका एक बड़ा ही सुन्दर समाधान यह कहकर प्रस्तुत किया कि नाटक के रंगमंच पर अभिनेता किसी एक पात्र का अभिनय करता है और उसी रंगमंच पर यदि दूसरा नाटक खेला जाय तो यह आवश्यक नहीं है कि वही अभिनेता दूसरे नाटक में भी उसी रूप में आये। एक ही अभिनेता को हम भिन्न- भिन्न नाटकों में अलग- अलग रुपों में देखते हैं। अब यदि इस बात को लेकर विवाद किया जाय कि कौन सा अभिनेता श्रेष्ठ है ? और कौन सा श्रेष्ठ नहीं है ? तो यह बात वस्तुतः केवल रुचि से सम्बन्धित है, इसका तत्त्वतः कोई अर्थ नहीं है। गोस्वामीजी इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं -


जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ। 7/72ख

और इस अभिनेता की विशेषता यह है कि जिस नाटक में उसको जो पाठ (पार्ट) दिया गया है, वह इसी प्रकार के कार्यों का निर्वाह करता है। अभिनय की सफलता इसी में है कि वह उस पाठ में तदाकार हो जाय। उसको उसकी भूमिका में इतना आनन्द आता है कि वह कुछ समय के लिए भूल जाता है और भूल जाना चाहिए कि यह नाटक है, वह उस रस में तदाकार हो जाता है, तन्मय हो जाता है। अभिनेता के भिन्न- भिन्न पात्रों के रूप में आने पर भी यदि उससे पूछा जाय कि तुम वस्तुतः कौन हो ? या तुम्हारा किस नाटक में अभिनय वस्तुतः बहुत अच्छा था ? और किस नाटक में वस्तुतः तुम्हारा अभिनय उतना अच्छा नहीं था ? तो साधारण अभिनेता के सन्दर्भ में तो ऐसा हो सकता है कि किसी नाटक में उसका अभिनय श्रेष्ठ हो और किसी में उतना अच्छा न हो। जब ईश्वर ही रंगमंच पर अभिनेता बन करके अभिनय करने के लिए प्रस्तुत हो जाय तब क्या हो ? ईश्वर से पूछा गया कि आपने इतने अवतार लिये और अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट किया, इसमें सबसे अच्छा अभिनय आपका कौन सा है ? तब प्रभु तो मुस्कुराकर यही पूछेंगे कि आप ही बताइए कि आपको कौन-सा अभिनय अच्छा लगा ? मेरे लिए तो उनमें कोई अन्तर नहीं है, हमको तो जो भी भूमिका दी जाती है, कर लेते हैं, लेकिन दर्शकों की रुचि में भिन्नता होती है।

वस्तुतः किसी को किसी नाटक में अधिक रस आता है तो किसी को किसी दूसरे में। अभिनेता की विलक्षणता यह है कि वह तदाकार भी है और निर्लेप भी। यदि तन्मय नहीं होगा तो अभिनय में सफलता नहीं मिलेगी, परन्तु तदाकार होकर भी वह तदाकार नहीं हो पाता, क्योंकि यदि सचमुच वह अपने- आपको वही मान ले, जिस रूप में वह किसी नाटक में काम कर रहा हो तो सचमुच किसी दूसरे नाटक में वह संकट में पड़ जायेगा। इसलिए वह एक रूप में जब अभिनय करता है तो उसी रूप में डूब जाता है और साथ-साथ उस अभिनय से अपने आपको अलग भी रखता है, यही इस दोहे में कहा गया है-


जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।7/72/ख


वह नाटक में भाव दिखाता है लेकिन वही हो नहीं जाता। मैं तो इसे यों कहूँगा कि विश्व रंगमंच पर अवतरित होकर प्रभु ने लीलाएँ कीं, अब उन लीलाओं में श्रेष्ठता एवं कनिष्ठता वस्तुतः प्रभु की दृष्टि से नहीं है, पर हमारी आपकी दृष्टि से तो है ही। इस अन्तर का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्तःकरण भिन्न- भिन्न प्रकार का बना हुआ है। उसमें संस्कारों की भिन्नता है, वातावरण की भिन्नता है तथा सोचने की पद्धति में भिन्नता है। नाटक में कुछ लोगों को हास्य में बड़ा आनन्द आता है तो कुछ को गम्भीर दृश्यों में और कुछ को करुणा में ही बडा आनन्द आता है। यह वस्तुतः दर्शक की रुचि की भिन्नता है, अभिनेता के लिए इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हमारे प्रभु वे ही श्रीराम हैं और वे ही प्रभु श्रीकृष्ण हैं।

परम सन्त बिल्बमंगलजी ने कहा कि प्रभु आप बड़े ही सुन्दर लग रहे हैं, लेकिन धनुष-बाण के स्थान पर यदि मुरली होती तो अच्छा होता और सचमुच अगले ही क्षण उन्हें धनुष बाण नहीं, वंशी दिखलायी देती है। दूसरी दृष्टि में वृन्दावन में गोस्वामी भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर में जाते हैं। लोग अक्सर इसका उल्टा अर्थ ले लेते हैं और समझते हैं कि बिल्वमंगल और गोस्वामी जी के मन में भेद है। यह तो बिल्कुल उल्टी बात है। यदि भेद होता तो बिल्वमंगल श्रीराम मन्दिर में और गोस्वामीजी श्रीकृष्ण मन्दिर में क्यों जाते ? वे जानते हुए गये थे। गोस्वामीजी के बारे में तो प्रसिद्ध ही है। जब वे श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने खड़े हुए तो किसी भक्तने व्यंग्य कर दिया, उनका नाम संस्मरणों में परशुरामदास के नाम से प्रसिद्ध है, उन्होंने गोस्वामीजी को देखा तो कह दिया कि-

अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय।
परसुराम जो आन को नमै सो मूरख होय।।


गोस्वामीजी तो दोनों को एक ही मानते थे, इसीलिए आये थे, एक न मानते तो आते ही क्यों ? परन्तु जब देखा कि इनके मन में इतना भेद है तो तुरन्त प्रभु से प्रार्थना की कि आप इस रूप में बड़े ही सुन्दर हैं, लेकिन यदि वंशी के स्थान पर धनुष बाण होता तो और भी अधिक आनन्द आता। बस इतना कहना था कि धनुष बाण ले लिया, वंशी हट गयी। क्या फरक पड़ता है ? धनुष बाण है तो शरसंधान करते हैं और वंशी है तो स्वर संधान करते हैं। तो चाहे शरसंधान करें चाहे स्वरसंधान करें। दोनों का उद्देश्य तो जीव को बुलाना ही है।

वंशीध्वनि से गोपियाँ व्याकुल होकर उनकी ओर आकृष्ट होकर दौड़ी आती हैं। कुछ लोगों को धनुष बाण ही आकृष्ट करता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं कि जो कहते हैं कि हमको तो धनुष-बाण देखकर डर लगता है। यह तो अपनी अपनी पसन्द है, रुचि है। उद्देश्य क्या है ? वंशी के द्वारा भगवान कृष्ण उनको पास बुलाते हैं जो ऐसी हैं और श्रीराम बाण के द्वारा भी उनको पास बुलाते हैं जिनमें प्रेम बिल्कुल नहीं है। ये शर किसलिए चला रहे हैं ? जितने राक्षस हैं उनमें मिलने के लिए ही तो चला रहे हैं। रावण का सिर जब बाणों के द्वारा कटता है तो क्या रावण को मारने के लिए ? नहीं-


तासु तेज समान प्रभु आनन।
हरषे देखि संभु चतुरानन। 6/102/9


रावण के मुख से तेज निकलकर भगवान् के मुख में समा जाता है। भगवान् कहते हैं कि सीधे आओ तो वंशी सुनाकर बुलाऊँगा और यदि सीधे नहीं आओगे तो बाण चलाकर बुला लूँगा, लेकिन बुलाउँगा अवश्य। किसी तरह से जीव को अपनी ओर खींचना है, आकृष्ट करना है। मुख्य बात यह है कि प्रभु में कोई भिन्नता नहीं है, पूर्णता या अपूर्णता वाली बात भी नहीं है। बहुधा लोग ऐसे शब्द कहा करते हैं जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम एवं लीला पुरुषोत्तम। अरे भई ! जब दोनों एक ही हैं तो एक ही पूर्ण है और अपूर्ण है। जो ब्रह्म है उसमें भी पूर्णता और अपूर्णता क्या है ? यह तो वस्तुतः किसी तरह भी उपयुक्त नहीं है।
एक ही पूर्ण ब्रह्म है जो रंगमंच पर अवतरित होता है।

लीला में जो भिन्नता दिखायी देती है, इसका अभिप्राय क्या है ? तीन सूत्र इस सन्दर्भ में हैं-युग की भिन्नता, काल की भिन्नता और व्यक्ति की भिन्नता। वे श्रीराम के रूप में त्रेतायुग में अवतरित होते हैं और श्रीकृष्ण के रूप में द्वापरयुग में। काल की भिन्नता में एक का अवतार होताहै चैत्र मास में और दूसरे का भाद्रपद की अष्टमी को वर्षाकाल में। एक ने राजमहल में जन्म लिया तो दूसरे ने कारागार में। ये तीन भिन्नताएँ हैं-देश काल और व्यक्ति की। इसका बड़ा सरल सूत्र यह है कि यह तो हमारे अन्त:करण की आवश्यकता पर निर्भर है कि हमारा अन्तःकरण त्रेतायुग में निवास करता है कि द्वापरयुर में। और भी सूक्ष्मता से कहें तो इसका अभिप्राय यह है कि हमारा अन्तःकरण सर्वदा एक ही युग में निवास करता है कि अलग-अलग युगों में ?

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai